मेंथाल मिंट की खेती

विश्व में मेंथा का सबसे ज्यादा उत्पादन भारत में होता है मेंथा आयल के निर्यात में भी भारत का पहला स्थान है। मेंथा से प्राप्त होने वाले सगंधीय तेल में 65 से 90 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है जिसका उपयोग अनेक प्रकार के औषधीय एवं सुगंधित उत्पादों में किया जाता है।

बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. 6 से 7 के बीच हो इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। मेंथा की खेती जीवांश युक्त अच्छी जल धारण छमता वाली मिट्टी में की जा सकती है।

मेंथा के खेत की तैयारी करने के लिए खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद  मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा बना लें। खेत तैयार करते समय मिट्टी में 20- से 25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सडी हुई गोबर की खाद का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

मेंथा की बुवाई का सही समय 15 जनवरी से 15 फरवरी के मध्य है। मेंथा की बुवाई पंक्ति से पंक्ति 45 से॰ मी॰ तथा पौधे से पौधे से॰मी॰ की दूरी पर की जाती है। मेंथा की रोपाई 3 से 4 से॰मी॰ की गहराई पर करनी चाहिए। मेंथा की रोपाई के तुरंत बाद खेत में हल्का पानी लगाना चाहिए।

मेंथा में खरपतवार नियंत्रण-

मेंथा की फसल में खरपतवारों का नियंत्रण नही करने पर वानस्पतिक तथा तेल की उपज पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। मेंथा की खेती में टपक सिचाई अपनाकर तथा मलचिंग का प्रयोग करके खरपतवारों का नियंत्रण किया जा सकता है। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण  करने के लिए पेण्डीमेथिलीन 30 ई.सी. की 3.3 लीटर मात्रा को 700-800 ली॰ पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

मेंथा की बुवाई –

मेंथा की बुवाई दो तरह से की जाती है – सीधी बुवाई विधि एवं नर्सरी विधि।

सीधी बुवाई विधि – इस विधि में मेंथा की जड़ का प्रयोग किया जाता है 1 हेक्टेयर में जड़ द्वारा बुवाई करने पर 200 से 250 कि. ग्रा. जड़ की आवश्यकता पड़ती है। इस विधि में खेत तैयार करके 50 से.मी. की दूरी पर जड़ों की बुवाई करी जाती है।

नर्सरी विधि द्वारा बुवाई विधि – मेंथा की नर्सरी जनवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर फरवरी के प्रथम सप्ताह तक लगते हैं मेंथा की नर्सरी को ऊंचे स्थान पर बनाते हैं जिससे नर्सरी में जल भराव की समस्या न हो सके। एक हेक्टेयर के लिए मेंथा की पौध तैयार करने के लिए 90 से 100 किलो ग्राम मेंथा की जड़ की आवश्यकता पड़ती है। नर्सरी में बुवाई के लिए मेंथा की दो से तीन आँख वाली  5 से 6 से.मी. लंबी जड़ का प्रयोग करते हैं। नर्सरी में लगाने से पहले मेंथा की जड़ का 0.2 % बाविस्टीन से उपचार अवश्य कर लेना चाहिए। 30 से 45 दिन दिन में मेंथा की नर्सरी रोपण के लिए तैयार हो जाती है।

मेंथा में प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन- 120-150 किलो ग्राम, फास्फोरस – 50-60 किलोग्राम, पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। मेंथा की फसल में फास्फोरस देने के लिए सिंगल सूपर फास्फेट का प्रयोग करना चाहिए। यदि फास्फोरस देने के लिए डी.ए.पी का प्रयोग कर रहे हैं तो डी. ए. पी. के साथ 200-250 किलो ग्राम जिप्सम का प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा को बुवाई के समय ही देना चाहिए तथा नाइट्रोजन की कुल मात्रा को 3 बराबर भागो में बाँट कर, एक भाग को बुवाई के समय, दूसरे भाग को बुवाई के 45 दिन बाद तथा तीसरे भाग को बुवाई के 70-80 दिन बाद देना चाहिए।

मेंथा में पहली सिचाई बुवाई के समय करनी चाहिए तथा उसके बाद 20-25 दिन के अंतराल पर सिचाई करते रहना चाहिए। फसल की कटाई से 15 से 20 दिन पहले सिचाई बंद कर देनी चाहिए लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए की फसल सूखने न पाये। यदि कटाई के समय खेत में नमी रहती है तो कटाई के समय पत्तियाँ अधिक गिरती हैं।

मेंथा की फसल के प्रमुख कीट एवं रोग तथा उनके उपचार –

पत्ती लपेटक कीट – इस कीट की सूंडिया पत्तियों को लपेटकर खाती हैं। इस कीट के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 36 इ.सी. की एक लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

दीमक – दीमक पौधों की जड़ों को नुकसान पाहुचती हैं इसका अधिक प्रकोप होने पर पोधे सूखने लगते हैं। खड़ी फसल में दीमक की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।

बालदार सूँडी – यह कीट पत्तियों की निचली सतह पर रह कर पत्तियों को खाते हैं इस कीट के नियंत्रण के लिए डाइक्लोरोवास 500 मि.ली. या फेनवेलरेट 750 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से 600 से 700 लीटर पानी में मिलकर छिड़काव करना चाहिए। इस कीट के पतंगो को प्रकाश प्रपंच के माध्यम से भी नष्ट किया जा सकता है।

जड़ गलन रोग – इस रोग के कारण जड़ें काली पड जाती हैं तथा जड़ो पर गुलाबी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इस रोग से बचाव के लिए बुवाई / रोपाई से पहले जड़ों का 0.1% कार्बेण्डाजिम के घोल से उपचार करना चाहिए तथा रोग मुक्त जड़ों का प्रयोग करना चाहिए।

पर्णदाग रोग- इस रोग के कारण पौधों की पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं तथा पत्तियाँ पीली पड़ कर गिरने लगती हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए मैंकोजेब 75 डब्लू. पी. की 2 किलोग्राम मात्रा को 600 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

कटाई एवं पैदावार –

मेंथा की फसल की कटाई दो बार की जाती है, पहली कटाई, बुवाई के 100 से 110 दिन बाद की जाती है, पहली कटाई करते समय मेंथा की फसल को जमीन से 10 से 15 से.मी.  छोड़ कर काटते हैं। दूसरी कटाई पहली कटाई के 60 से 80 दिन बाद करते हैं। आसवन के पश्चात पहली कटाई से प्रति हेक्टेयर लगभग 80 से 100 कि.ग्रा. तेल तथा दूसरी कटाई से लगभग 80 से 10 कि.ग्रा. तेल प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों कटाई से मिलाकर कुल 200 से 250 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है।